Quit India Movement This was a big struggle before independence
Quit India Movement This was a big struggle before independence

8 अगस्त 1942 की शाम थी. मुंबई की गोवालिया टैंक मैदान में लाखों लोग जुटे थे. आज़ादी के विचार से प्रेरित लोगों से ये मैदान खचाखच भरा था. उनके सामने एक 73 साल का बूढ़ा खड़ा था. लोग कान लगाए उत्सुकता से उस व्यक्ति का भाषण सुन रहे थे.

उस बुज़ुर्ग ने चेतावनी देने के भाव के साथ अपने हाथ उठाए और करो या मरो, करेंगे या मरेंगे के प्रण के साथ दो शब्द कहे. इसी से भारत में ब्रितानी साम्राज्य के अंतिम अध्याय शुरू हुआ

वो नारा था- ‘भारत छोड़ो’. इस नारे की घोषणा कर रहे बुज़ुर्ग व्यक्ति थे मोहनदास करमचंद गांधी.

भारत छोड़ो के नारा सुनकर भीड़ में बिजली सी कौंध गई.

मुंबई के आसमान में ब्रितानी विरोधी नारे गूंज रहे थे और डूबता हुआ सूरज आजादी का सपना दिखा रहा था.

‘भारत छोड़ो’ आंदोलन को आज़ादी से पहले भारत का सबसे बड़ा आंदोलन माना जाता है. देश भर में लाखों भारतीय इस आंदोलन में कूद पड़े थे. देश भर में जेलें क़ैदियों से भर रहीं थीं. इस भूमिगत आंदोलन ने ब्रितानियों को चौंका दिया था.

इस लेख में हम आपको उन घटनाओं और लोगों की कहानी बता रहे हैं जिन्होंने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया और भारत में आज़ादी का अलख जगाया.

सबसे पहले बात करते हैं ‘भारत छोड़ो’ नाम की और इसकी ज़रूरत क्यों पैदा हुई.

 ‘भारत छोड़ो’ की कहानी

14 जुलाई 1942 को वर्धा में कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक हुई थी. यहीं ये निर्णय हुआ था कि ब्रितानियों को भारत को तुरंत भारतवासियों के हाथ में सौंप देना चाहिए.

इसके बाद, एक महीने के भीतर ही, यानी 7 अगस्त को मुंबई में कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक हुई और 8 अगस्त को भारत छोड़ों का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. गोवालिया टैंक मैदान में हुई ऐतिहासिक बैठक में इस प्रस्ताव की घोषणा की गई.

ये बैठक शाम 6 बजे शुरू हुई थी और रात दस बजे समाप्त हुई. इस बैठक में चार भाषण दिए गए थे.

सबसे पहला भाषण कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने दिया, इसके बाद पंडित नेहरू ने कांग्रेस की कार्यसमिति के प्रस्ताव को पढ़ा. इसके बाद सरदार पटेल ने भाषण दिया और नेहरू के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी.

चौथे वक्ता थे महात्मा गांधी. महात्मा गांधी ने इस बैठक में कुल तीन भाषण दिए थे. इनमें से एक भाषण अंग्रेज़ी में था जिसमें उन्होंने ‘क्विट इंडिया’ का ऐतिहासिक नारा दिया.

‘क्विट इंडिया’ नारे का कई भाषाओं में अनुवाद किया गया और इसे हिंदी में ‘भारत छोड़ो’ कहा गया. मराठी में इसे ‘चले जाओ’ कहा गया.

इस नारे का नामकरण भी दिलचस्प है.

मुंबई के मेयर जिन्होंने प्रस्ताव को शब्द दिए

अंग्रेज़ों को दी जाने वाली अंतिम चेतावनी जोश से भरी हुई होनी चाहिए थी. इसलिए ही महात्मा गांधी कई लोगों से सलाह ली ताकि ऐसा नारा दिया जा सके जिसमें प्रतिबद्धता दिखे. इसके बाद कई लोगों ने अपने विचार रखे.

इनमें से एक विचार था ‘Get Out’ लेकिन इसमें एक तरह की बदतमीज़ी भी थी इसलिए गांधी ने इस विचार को खारिज कर दिया.

फिर सरदार पटेल ने दो नारे सुझाए ‘Retreat India’ और ‘Withdraw India’. हालांकि इन्हें भी बहुत पसंद नहीं किया गया.

 इसी बीच यूसुफ़ महर अली ने ‘क्विट इंडिया’ का सुझाव दिया और महात्मा गांधी ने इसे तुरंत स्वीकार कर लिया. इससे पहले जब साइमन आयोग के ख़िलाफ़ आंदोलन हुआ था तब यूसुफ़ महर अली ने ही ‘साइमन गो बैक’ का नारा दिया था.

इस दौर में यूसुफ़ महर अली कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे. वो कांग्रेस के समाजवादी विचारधारा वाले नेताओं में प्रमुख नेता थे. वो मुंबई शहर के मेयर भी थे जहां इस ऐतिहासिक आंदोलन की घोषणा हुई थी.

अंग्रेज़ों ने गिरफ़्तारियां शुरू की

‘भारत छोड़ों’ नारे ने समूचे भारत में लोगों को प्रभावित किया और वो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अंतिम लड़ाई में कूद पड़े.

महात्मा गांधी आज़ादी की इस अंतिम लड़ाई के लिए पूरी तरह तैयार थे. दूसरी तरफ़ भारतीय भी अभूतपूर्व संख्या में इस आंदोलन के साथ जुड़ रहे थे.

आंदोलन की तीव्रता को देखते हुए ब्रितानी सरकार ने आंदोलन के नेताओं और कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेना शुरू कर दिया. सबसे पहले गोवालिया टैंक मैदान में भाषण देने वाले चारों नेताओं को गिरफ़्तार किया गया. ये थे गांधी, नेहरू, पटेल और आज़ाद.

अगले ही दिन यानी 9 अगस्त की सुबह चारों नेताओं को जेल भेज दिया गया था.

 गांधी को पुणे के आग़ा ख़ान महल में रखा गया. जबकि आंदोलन में हिस्सा लेने वाले दूसरों नेताओं को देशभर में अलग-अलग जेलों में भेजा गया. आज़ादी की लड़ाई में कुछ जेल चले गए और कुछ संघर्ष को जारी रखने के लिए भूमिगत हो गए.

आज़ादी की लड़ाई के में जेल जाने वाले और भूमिगत होने वाले इन सिपाहियों से जुड़ी कुछ घटनाएं दिल को झकझोर देने वाली हैं, कुछ भावुक कर देने वाली हैं और कुछ बहुत दिलचस्प हैं. इनमें से कुछ पर हम इस लेख में रोशनी डाल रहे हैं.

जब साने गुरूजी ने धरा सेठजी का भेष

जब महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो नारे के साथ अंग्रेज़ों को चेतावनी दी तब साने गुरूजी (पांडुरंग सदाशिव साने) खानदेश के अम्मालनेर में थे. उन्हें पता चला कि देश के समाजवादी भूमिगत रहेंगे और आंदोलन में हिस्सा लेंगे.

इस दौरान, साने गुरुजी ने सतारा और खानदेश क्षेत्र की यात्राएं की और कार्यकर्ताओं के साथ गुप्त बैठकें की और उन्हें निर्देशित किया.

मुंबई में साने गुरुजी भूमिगत हो चुके कार्यकर्ताओं के साथ रहते थे और उनके लिए खाना पकाते थे.

जिन जगहों पर भूमिगत कार्यकर्ता रहते थे उन्हें कूट नाम दिए गए थे. जैसे- संतवाड़ी, हदाल हाउस और मूषक महल. भूमिगत कार्यकर्ताओं से मिलने जाते समय साने गुरुजी अपना भेष बदल लेते थे. कई बार वो सेठजी की तरह कपड़े पहनते. वो धोती कोट के साथ पगड़ी लगाते और स्कार्फ डालते. कई बार वो किसान का रूप धारण करते और चादर ओढ़ लेते.

एक बार एक डॉक्टर के भेष में वो जयप्रकाश नारायण से मिले और उन्हें खाना पहुंचाया.

साने गुरुजी का भूमिगत काम 18 अप्रैल 1943 को रुक गया. इस दिन पुलिस ने उन्हें मूषक महल से गिरफ़्तार कर लिया. उनके अलावा 14 अन्य कार्यकर्ता गिरफ़्तार किए गए जिनमें श्रीभाऊ लिमाये, एनजी गोरे भी शामिल थे. यहां से इन्हें यरवडा जेल ले जाया गया. यहां भी उन्होंने पहले से जेल में बंद कार्यकर्ताओं की मुश्किलें आसान करने की कोशिश की. बाद में उन्हें यरवडा से नासिक भेज दिया गया.

भारत छोड़ों आंदोलन की कामयाबी के बाद साने गुरुजी को 46 बैलगाड़ियों की शोभायात्रा के साथ जलगांव शहर में घुमाया गया.

गांधी से मिलने के लिए अरुणा आसफ़ अली ने ख़तरे में डाली जान

अरुणा आसफ़ अली को ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की अगुआ महिला माना जाता है. महात्मा गांधी भी उन्हें आंदोलन के लिए भूमगित काम करने से नहीं रोक सके थे. गांधी से मुलाक़ात करने के लिए अरुणा आसफ़ अली ने जो साहस दिखाया वो इतिहास में दर्ज है.

अरुणा असफ़अली समाजवादी विचारधारा की थीं. एक एक करके भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़े सभी समाजवादी नेताओं को जेल भेजा जा रहा था. इस परिस्थिति के दौरान ये ख़बर आई की अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगने के लिए मजबूर करने के लिए जयप्रकाश नारायण को बर्फ की सिल्ली पर सुलाया जा रहा है.

पूरा देश इस ख़बर से हिल गया. अरुणा असफ़ अली इससे बहुत आक्रोशित थीं और वो सरकार के ख़िलाफ़ किसी भी हद तक जाने को तैयार थीं. वो देशभर में घूमकर युवाओं को आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित कर रहीं थीं. वो भूमगित रहकर ये सब कर रहीं थीं और उनकी सेहत ख़राब होती जा रही थी.

गांधी अरुणा की सेहत को लेकर चिंतित थे और उन्होंने अरुणा को मिलने के लिए बुलाया. पीजी प्रधान को उनसे मुलाक़ात कराने की ज़िम्मेदारी दी गई.

 गांधी पुणे के पारसी स्वास्थायलय के पिछवाड़े में एक झोपड़ी में रह रहे थे. चूंकि ये क्षय रोगियों के अस्पताल का हिस्सा थी इसलिए यहां पुलिस की बहुत मौजूदगी नहीं थी. इस स्थिति का फ़ायदा उठाकर अरुणा यहां पहुंच गईं. वो पारसी महिला का भेष बदलकर आईं थीं. ये तय हुआ था कि वो कपाड़िया शब्द बोलेंगी और गांधी उन्हें पहचान लेंगे.

अरुणा को देखकर गांधी ने उनसे आक्रामक काम को रोककर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने की गुज़ारिश की.

हालांकि अरुणा ने कहा, “मैं आपका बहुत सम्मान करती हूं. लेकिन हमारे विचार एक जैसे नहीं हैं. मैं एक क्रांतिकारी हूं और क्रांतिकारी की ही तरह काम करूंगा. अगर आप दे सकते हैं तो मुझे आशीर्वाद दीजिए.”

अरुणा में ये साहस था कि उन्होंने महात्मा गांधी से ये कह दिया कि हमारे रास्ते अलग हैं. वो अपनी जान के ख़तरे को जानते हुए भी गांधी से मिलने गईं.

 हालांकि अंत तक वो कभी भी अंग्रेज़ों के हाथ नहीं आईं. उन पर पांच हज़ार रुपए का ईनाम रखा गया था.

अरुणा असफ़ अली के बारे में युसूफ़ महर अली ने कहा था कि वो रानी लक्ष्मीबाई के बाद आज़ादी के आंदोलन की सबसे अगुआ महिला थीं.

शादी के दो महीने बाद जेल गए यशवंतराव चव्हाण

महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री यशवंत राव चव्हाण 1942 में आज़ादी के आंदोलन में स क्रिय थे. वो तुरंत भारत छोड़ों आंदोलन में कूद पड़े थे.

आंदोलन में सक्रियता की वजह से शादी के महज़ दो महीने बाद ही उन्हें जेल जाना पड़ा था.

यशवंत राव से शादी करने वाली वेणुताई ने घोषणा की थी वो सिर्फ़ क्रांतिकारी से ही शादी करेंगी. 2 जून 1942 को उन्होंने यशवंत राव से शादी की थी. हालांकि शादी के पहले सालों में उन्हें बहुत चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन वो डिगी नहीं.

आंदोलन में यशवंत राव की सक्रियता के चलते वेणुताई को भी गिरफ़्तार कर लिया गया. वो संक्रांति उत्सव के दिन थे. यशवंत राव अक्सर इस बात पर अफ़ोसस करते थे कि उनकी पत्नी को शादी के बाद पहली संक्रांति पर ही उनकी वजह से जेल जाना पड़ा. हालांकि वेणुताई ने इन सभी हालात का साहस के साथ सामना किया.

गांधी की परछाईं कहे जाने वाले महादेव देसाई का निधन

महादेव देसाई ने साल 1917 में महात्मा गांधी के साथ काम करना शुरू किया था. उसके बाद से अपनी मौत तक, यानी 25 सालों तक, वो गांधी की परछाईं बने रहे.

उन्होंने गांधी के लिए कई भूमिकाएं निभाई. वो उनके सचिव थे, लेखक थे, अनुवादक, सलाहकार और संवादक थे. वो गांधी के लिए खाना भी बनाते थे. महात्मा गांधी पर किताब लिखने वाले रामचंद्र गुहा ने लिखा है कि गांधी महादेव देसाई की बनाई खिचड़ी के प्रशंसक थे.

भारत छोड़ो नारा देने के बाद गांधी को गिरफ़्तार कर लिया गया था और पुणे के आग़ा ख़ान पैलेस में रखा गया था. कस्तूरबा गांधी और महादेव देसाई को भी हिरासत में रखा गया था.

वहीं दिल का दौरा पड़ने की वजह से 15 अगस्त 1942 को महादेव देसाई का निधन हो गया था. वो 50 साल के थे.

 महादेव देसाई की मौत से महात्मा गांधी को गहरा सदमा लगा. आज़ादी से पूर्व सबसे बड़े आंदोलन में महादेव गांधी के साथ नहीं रहने वाले थे.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं, महादेव देसाई की मौत के बाद गांधी बार-बार उन्हें याद करते रहते थे.

हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एकजुटता पैदा करने के लिए गांधी जब देश का दौरा कर रहे थे तब गांधी ने उनकी बड़ी भतीजी मानुला से कहा था, “मुझे महादेव की अब सबसे ज़्यादा याद आती है, अगर वो होते तो हालात इतने ख़राब नहीं हुए होते.”

1942 आंदोलन के दौरान महादेव की मौत ने गांधी को गहरा आघात पहुंचाया था.

असम की कनकलता और सतारा की काशीबाई हानावर

1997 के साधना पत्रिका के अंक में रोहिनी गावंकर ने भारत की आज़ादी के संघर्ष में महिलाओं की भूमिका के बारे में लिखा है. उन्होंने ख़ासतौर पर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं की भूमिका का ज़िक्र किया है. इसमें आंदोलन के दिल को झकझोर देने वाली घटनाएं भी हैं.

असम की 16 साल की लड़की कनकलता बरुआ की बहादुरी की गाथा अमर हो गई है. कनकलता 1942 के आंदोलन में कूद गईं थीं. उन्होंने एक थाने के बाहर झंडे को सलामी देने के लिए युवाओं को इकट्ठा किया. पुलिस थाने के बाहर कनकलता ने भाषण भी दिया.

झंडा फहराने से कुछ देर पहले पुलिस ने युवाओं पर गोली चला दी जिसमें कनकलता की मौत हो गई. गावंकर लिखती हैं कि कनकलता का नाम आज़ादी के लिए जान देने वाली पहली युवा महिला के तौर पर दर्ज है.

 गांधीवाधी विचारधारा की उषा मेहता जो आंदोलन के दौरान भूमिगत रेडियो स्टेशन चलाती थीं की आज बहुत से लोग जानते हैं. 1942 में उषा मेहता कॉलेज में थीं. वो मुंबई में एक रेडियो स्टेशन चलाती थीं. इस रेडियो पर वो दूसरे विश्व युद्ध के समाचार और देशभर में चल रहे आंदोलनों के बारे में जानकारी देती थीं.

रेडियो स्टेशन के हमेशा एक जगह से दूसरी जगह पर ले जाना पड़ता था. पुलिस किसी भी तरह इस स्टेशन को पकड़ना चाहती थी. एक देशद्रोही, जिसे उषा मेहता के रेडियो स्टेशन के बारे में पता था ने उन्हें धोखा दे दिया. इसका नतीजा ये हुआ कि रेडियो पर समाचार देने के दौरान उन्हें पकड़ लिया गया.

गावंकर ने जिन घटनाओं का ज़िक्र किया है उनमें सबसे हैरान करने वाली घटना काशीबाई हनवार की है जो स्वतंत्र वैकल्पिक सरकार का हिस्सा थीं.

नाना पाटिल ने जिस वैकल्पिक स्वतंत्र सरकार (प्रति सरकार) का गठन किया था उसकी महिला कार्यकर्ताओं को सतारा ज़िले में अंग्रेज़ों के गंभीर उत्पीड़न का सामना करना पड़ा.

पुलिस ने काशीबाई हनवार नाम की महिला के निजी अंगों में मिर्ची पाउडर डाल दिया था. उन्होंने इस टॉर्चर, अपमान और क्रूरता का सामना किया. अंत तक उन्होंने किसी कार्यकर्ता का नाम या पता पुलिस को नहीं दिया.

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